फतेहपुर, संवाददाता
मलवां विकास खण्ड का शिवराजपुर गाँव अपने अंदर आध्यात्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक अतीत की पूरी कहानी को संजोए है। शिवराजपुर का बखान शिव पुराण में मिलता है। बीते काल गंगा नदी गिरधरगोपाल मन्दिर की सीढ़ियों से बहती थी। ऋषि यहां तपस्या करते थे। इस स्थान में महत्त्वपूर्ण प्रागैतिहासिक काल के अवशेष है, जो ताम्रयुगीन बताये जाते हैं। यहाँ प्राचीन मंदिरों की संख्या है। इस स्थान को तीर्थ रूप में मान्यता प्राप्त है। यह स्थान चरणदासी संप्रदाय का केन्द्र था। सौ वर्ष प्राचीन एक हस्तलिखित ग्रंथ से ज्ञात होता है कि प्रसिद्ध भक्त कवियित्री मीराबाई इस स्थान पर आईं थीं। इस ग्रंथ में शिवराजपुर का माहात्मय वर्णित है। शिवराजपुर में मीराबाई की स्मृति में गिरधरगोपाल का मंदिर बना हुआ है। चूने राखी से बने खूबसूरत मंदिर गिरकर खंडहर बन गये है। सामने कि सुदरता का नमूना मात्र देखकर अनुमान लगाया जा सकता है शिवराजपुर कितना सुदंर था। गंगा तटवर्ती शिवराजपुर का पुराणों में धर्म नगरी के रूप में उल्लेख है। मंदिर मे कीमती मूर्ति कि सुरक्षा के कोई इतजाम नहीँ है।
श्रीकृष्ण कि अनन्य भक्त मीरा द्वारा स्थापित है गिरधर गोपाल मन्दिर
शिवराजपुर मे पूरे वर्ष श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त मीराबाई के हाथो स्थापित गिरधर गोपाल के दर्शन को भक्त आते रहते हैं। उपेक्षा का शिकार छोटी काशी शिवराजपुर अपनी गाथा को मूक रूप से प्रदर्शित कर रहे गंगा के उत्तरी छोर में बसे शिवराजपुर के पौराणिक महत्व का विस्तृत वर्णन ब्रह्मपुराण के उन्नीसवें अध्याय में है। पार्वती व मीराबाई की तपोस्थली शिवराजपुर को गौरी कुमारिका क्षेत्र भी कहा जाता है। स्वतंत्रता संग्राम में ही इस स्थल का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भक्तिकाल में संपूर्ण भारत में चर्चा का विषय बनी मीरा ने इस मूर्ति को चित्तौड़गढ़ से लाकर तपोस्थली शिवराजपुर में स्थापित किया था।
अलौकिक है गिरधरगोपाल की मूर्ति
शिवराजपुर में मीरा द्वारा स्थापित गिरधर गोपाल की यह प्रतिमा मानोवांछित फल देने के साथ ही भव्य आकर्षण के साथ अपनी अलग छटा बिखेरने वाली है। किमती गिरधर गोपाल कि मूर्ति चोरो के निगाह मे हमेंशा चढी रहती है। कीमती इस मूर्ति को छह अप्रैल 2015 को बदमाश लूट कर ले गए थे। 2003 मे भी मूर्ति चोरी हुई थी।
दयानंद सरस्वती ने भी किया था प्रवास
आज उपेक्षा के शिकार बने शिवराजपुर में समय समय पर ऋषियों का पदार्पण होता रहा है। इस पौराणिक स्थल के महत्व को जानकर 1872 में आर्य समाज के संस्थापक ऋषि स्वामी दयानंद जी सरस्वती ने एक वर्ष रहकर साधना की थी। यहां पॉच दिन का मेला लगता है जो हर साल कार्तिक पूर्णिमा मे शुरू होता है पूरे प्रदेश से श्रद्धालू यहां आते है।
कभी नाव से होता था व्यापार
शिवराजपुर लघु बंदरगाह के बाद तहसील व थाना भी था। यहां नाव से जब व्यापार होता था, तब तक यहां की रौनक देखते ही बनती थी। समय के अनुसार उपेक्षा का शिकार होते गए इस स्थल को अभी तक पर्यटन स्थल बनाए जाना तो दूर रहा। पुरातत्व विभाग को भी शासन व प्रशासन ने इसे नहीं दिया। जिससे प्रचीन धरोहर को सुरक्षित किया जा सके। मंदिर की व्यवस्था एक ही परिवार पुरातन काल से करता चला आ रहा है। पुरुषोत्तम बिहारी दीक्षित, इसके बाद उनकी बहन गंगा देवी, अब मंदिर के व्यवस्थापक/पुजारी हरिओम हैं।