फतेहपुर/संवाददाता,/
-“धरोहरो” से जुड़े इतिहास को न संजोने की प्रवृत्ति ने ऐतिहासिकता से आमजन को किया वंचित।
-बांके बिहारी जी महाराज विराजमान मंदिर के इतिहस के साथ इतिहासकारो ने नहीं किया न्याय।
-पहले गरीब बनकर मंदिर की जमीन पर हुए काबिज फिर किया बलात कब्जा, अब कर दिया सौदा, एक माननीय के परिवार के नाम हुआ बैनामा।
-और जब ढ़ाई सौ साल पहले महन्त नारायन दास को 51 जोड़े सर्पों का करना पड़ा अंतिम संस्कार।
इतिहास को वास्तव में संजो कर रखा जाए तो ही वह अपनी अमिट छाप छोड़ पाता है। किन्तु दुःख का विषय है कि “फतेहपुर” की तमाम “धरोहरो” को उससे जुड़े इतिहास को न संजोने की तत्कालीन इतिहासकारों की प्रवृत्ति ने उसकी ऐतिहासिकता से आम लोगों को परिचित होने में दशकों लग गए और न जानें कितनी धरोहरों का इतिहास अभी भी इतिहास बना हुआ है। ऐसा ही कुछ हुआ है शहर के “श्री बांके बिहारी जी महाराज विराजमान मंदिर” की ऐतिहासिकता और उससे जुड़े संस्मरणों के साथ। मंदिर के यशस्वी इतिहास से जनमानस और श्रृद्धालु अभी तक अपरिचित हैं। शायद यहां भी योजनाबद्ध ढंग से कुत्सित मानसिकता वालों ने उन्हें वंचित किया है। मन्दिर परिसर से जुड़े एक भू-खण्ड की ऐतिहासिकता के बावजूद उसका अस्तित्व संकट में है, लगभग साढ़े तीन दशक पूर्व जिस भूखण्ड को बहाने से “जीवन यापन” के लिए लिया गया था, पहरुओं ने उसका सौदा कर दिया है, नतीजतन उसके अस्तित्व पर पर कभी भी ग्रहण लग सकता है।
उल्लेखनीय हैं कि 1730 में स्थापित बांके बिहारी जी महाराज विराजमान मंदिर और उससे जुड़ी लगभग 16 बीघे जमीन पर दशकों पहले से लोगों की नजर थी। इतिहास को खंगालने पर पता चलता है कि मन्दिर के लगभग बगल से एक चौडा मार्ग प्रारम्भ से ही 107 गांव एवं पुरवो को जोड़ते हुए सीधे असोथर (रियासत/कस्बा) को जोड़ता था। उस समय के दृष्टिगत यह काफ़ी व्यस्त मार्ग होता था, जिस पर लोगों का विभिन्न उद्देश्यों के साथ आवागमन होता था। खासकर इस मन्दिर में “चौ-मास” में लगने वाले भव्य मेले में इस मार्ग का खासा महत्व होता था। इस रास्ते से जुड़ी कई किवदंतियां भी चर्चित रही हैं, जिनके साथ इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले इस देवस्थान (बांके बिहारी) की मौजूदा चहारदीवारी के बगल में स्थित फिलहाल अवैध कब्जे वाले लगभग तीन हजार स्क्वायर फीट “स्थान” के बारे में बताते हैं कि इसी स्थान पर महंत नारायन दास जी महाराज ने इसी स्थान पर “51 जोड़ा सर्पों का अन्तिम संस्कार” किया था। वाकया है सन् 1800 के करीब का। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के उत्सव के बाद तमाम सर्प अपने-अपने जोड़े के साथ बांके बिहारी के दर्शन की अभिलाषा लिए सैकड़ों मील का सफर तय कर मंदिर पहुंचे और फिर उनमें से एक जोड़ा जो सबसे उम्र दराज था, उसने विनम्र भाव से महन्त जी के सामने प्रकट होकर अपने कुल के साथ बांके बिहारी के दर्शन की अभिलाषा प्रकट की। क्योंकि रात्रि का दूसरा पहर प्रारम्भ हो चुका था और ऐसी मान्यता है कि इस समय परमात्मा विश्राम कर रहे होते हैं, इसीलिए किसी भी सिद्ध पीठ के पट नहीं खोले जाते हैं।
क्योंकि कायस्थ कुलश्रेष्ठ मिट्ठू लाल के वंशज मेहरबान सिंह व उनके प्रतापी पुत्र शिव अम्बर लाल ने इस मन्दिर में बांके बिहारी (भगवान श्रीकृष्ण) की बाल स्वारूप में मूर्ति स्थापित करवाई थी, इसलिए महन्त जी के समक्ष घोर संकट खड़ा हो गया कि एक तरफ “नाग हठ” तो दूसरी तरफ मर्यादा। आखिर करें तो क्या करें। बालक रूप में स्थापित बांके बिहारी को इस समय जगाना कहीं किसी अनर्थ का सबब न बन जाएं।
कहते हैं कि जब महन्त जी गहरे असमंजस में पड़ गए तो उसी समय वहां पर एक “अलौकिक शक्ति” प्रकट हुईं और उसने “सर्प जोड़ों” को समूचे कुल के साथ दर्शन देकर तृप्त करते हुए यहां आने का दूसरा मूल प्रयोजन पूंछा तो सभी ने “सर्प योनि” से मुक्ति मांगी। कहते हैं कि इस इच्छा की पूर्ति के लिए शक्ति को कुछ अन्य शक्तियों का आवाहन करना पड़ा, फिर देखते ही देखते सभी सर्पों ने देह त्याग दी।
क्योंकि सभी जोड़ों ने अपने को मंदिर की परिधि से बाहर न भेजने का अनुरोध किया था, इसलिए उन सभी का अंतिम संस्कार मंदिर परिसर में ही किया गया, जिसकी साक्षी पतित पावनी मां गंगा भी बनीं। मौजूदा समय में मंदिर की चहारदीवारी से जुड़ा एक “विवादित भवन” वही स्थान है, जिस पर महन्त जी ने 51 जोड़ा सर्पो का अंतिम संस्कार किया था। उधर ऐसी मान्यता है कि उसके बाद से ही इस मंदिर परिसर में जोड़ों का रात्रि प्रवास प्रतिबंधित हो गया।
कहते हैं कि जिस स्थान पर सर्प जोड़ों का अन्तिम संस्कार किया गया था, उसके अंतिम छोर पर कुछ समय बाद मिट्ठू लाल के वंशज बाबू खुशवक्त रॉय ने ईश्वर की प्रेरणा और महन्त नारायन दास के साथ मिलकर शिवलिंग की स्थापना करवाई, जिसे मौजूदा समय में नर्मदेश्वर (शिव) मंदिर के नाम से जाना जाता है।
महन्त नारायन दास जी महाराज ने जिस स्थान पर 102 सर्पों का अन्तिम संस्कार किया था, वह भू-खण्ड उस समय पौने दो बीघे के करीब होना बताया जाता है, जिस पर महन्त जी की प्रेरणा से नागपंचमी को विशेष पूजा अर्चना भी होती थी, नर्मदेश्वर शिवलिंग को इस स्थान का प्रतीक स्वरूप माना जाता रहा है। वैसे तो महन्त जी ने इस स्थान पर किसी प्रकार का निर्माण प्रतिबंधित कर दिया था, जिसके चलते यह स्थान हमेशा से खाली ही पड़ा रहा किन्तु 1975 के करीब कुछ हल्का फुल्का निर्माण हुआ किन्तु 1985 के करीब योजित रणनीति के तहत् यहां आए विजय कुमार शुक्ला ने मन्दिर के तत्कालीन महन्त गणेश दास जी महाराज से आश्रय मांगा, महन्त जी ने उनकी हालत पर तरस खाकर छोटे सा स्थान उन्हें कुछ समय परिवार समेत रहने के लिए किराए में दे दिया, क्योंकि विजय शुक्ल के परिवार की नियत तो मन्दिर के एक बड़े भूखण्ड पर कब्जे की थी, इसलिए सर्वप्रथम विजय शुक्ल की बड़ी बेटी आरती ने चक्की लगाने के लिए कुछ और स्थान किराए में लिया और फिर कुछ वर्ष के अंतराल में इस परिवार का कद बढ़ा तो किराया देना तो दूर और भी काफी स्थान पर बलात कब्ज़ा कर लिया, विजय के परिवार का लगभग साढ़े तीन दशक से मन्दिर के इस स्थान पर न सिर्फ कब्जा रहा है बल्कि दबंगई के बल पर भारी भरकम निर्माण भी करा लिया गया और मन्दिर के ऐतिहासिक कुंए को भी कब्जा लिया गया। खबर है कि विजय और आरती की मौत के बाद उनके अन्य परिजनों ने कुछ समय पहले एक माननीय के परिवार को इस भवन का सौदा करते हुए बाकायादे बैनामा कर दिया है, जिस पर अब इसी माननीय के परिवार का कब्जा है। इस सौदे में पूर्व में कथित रूप से मन्दिर से जुडे़ रहे एक हाईप्रोफाइल लाइजनर की भूमिका काफी संदिग्ध मानी जा रही है। राजस्व अभिलेख 59 फसली में इस स्थान (ज़मीन) का उल्लेख श्री बांके बिहारी विराजमान मन्दिर की जमीन के एक हिस्से के रूप में दर्ज़ है। देखना यह होगा कि सरकारी नियंत्रण वाले इस मंदिर ट्रस्ट की इस बेशकीमती जमीन पर से अवैध कब्ज़ा हट पाता है, या फिर इस ऐतिहासिक देव स्थान को यह अवैध कब्जा आगे भी मुंह चिढ़ाता रहता है।
गौरतलब है कि 1995 में इस मंदिर के अंतिम महंत गणेश दास ने मन्दिर की अवशेष समूची चल व अचल सम्पत्ति की ट्रस्ट डीड तत्कालीन जिलाधिकारी डा. प्रभात कुमार को कर दी थी, बावजूद इसके इस मंदिर का 1730 में निर्माण कराकर 16 बीघे से अधिक जमीन का दान करने वाले मेहरबान सिंह की मंशा के मुताबिक़ जब कभी इसकी (मंदिर) संपत्तियों/परिसंपत्तियों का दुरुपयोग और रखरखाव में कोताही बरती जायेगी और आध्यात्मिक प्रभाव कमज़ोर पड़ता प्रतीत होगा, तो परिवार (मेहरबान सिंह) सलीके से हस्तक्षेप करेगा। ज्ञातव्य रहे कि इस ख्यातिलब्ध रईस परिवार के फिलहाल अंतिम वारिस प्रदीप श्रीवास्तव (पूर्व डीजीपी चंडीगढ़) का इस बाबत कहना है कि – वैसे तो यह सरकारी ट्रस्ट बन चुका है, किन्तु यह हमारे परिवार की आन-बान-शान और आस्था से जुड़ा स्थान (मंदिर) है। हमारी और हमारे पूर्वजों की तमाम यादें इससे जुड़ी हैं, अगर इसकी बेहतरी के लिए कुछ करना पडा तो वह पीछे नहीं हटेंगे वे इस बाबत फतेहपुर के डीएम एवं एसपी से वार्ता करेंगे।